Thu Apr 06 2023,05:36 PM

धर्म और मानव

धर्म और मानव

यद्यपि धर्मों के विश्वासों, मान्यताओं और उनके अनुयायियों के व्यवहार से मानव समाज को कुछ लाभ भी होते हैं , किन्तु उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो कि धर्म के बिना प्राप्त न किया जा सके. विवेकपूर्ण विचार-विमर्श से समाज में इनसे भी अच्छे आचार-विचार प्रतिस्थापित किये जा सकते हैं . यहाँ तक कि जानवरों में भी बहुत से अच्छे गुण एवं आचरण पाए जाते हैं : जैसे कि अपनी ही प्रजाति को नष्ट न करना , अपने बच्चों को पालना, अपने मालिकों (पालने वालों) के प्रति संवेदना एवं बेमतलब हिंसा या विध्वंस न करना आदि .

धर्म विचारों पर आधारित होते हैं जिनकी जाँच-परख की जानी चाहिए और जो विचार सही नहीं पाए जाते हैं उनका तिरस्कार किया जाना चाहिए . इंसानों और विचारों में बुनियादी फ़र्क़ को समझना आवश्यक है. विचार तो बदलते रहते हैं . लोगों के पास अनेक विचार होते हैं . बहुत सी इच्छाएं होती हैं और दूरदर्शिता भी होती है . इंसानों में करुणा , दया , सहानुभूति ,घृणा , उदासी , अवसाद , संवेदनशीलता और विवेक ( अच्छे -बुरे को महसूस करने की क्षमता ) आदि अनेक गुण पाए जाते हैं . किसी भी इंसान के विचार इन सब पर निर्भर करते हैं . किसी समाज के सामूहिक विचार भी उनके नेतृत्व तथा सदस्यों की मान्यताओं और आकांक्षाओं से प्रभावित होते हैं . विचारों में स्थायित्व नहीं होता और न ही वे पवित्र (sacrosanct) या परम (supreme) हो सकते हैं . इसलिए कोई भी धर्म पवित्र या परम (सर्वोच्च ) नहीं हो सकता क्योंकि यह बदलता रहता है . किसी भी समय अनेक धर्म होते हैं और बहुत से लोग बिना धर्म के भी अच्छी तरह रहते हैं . अतः मानव को धर्म से एक अलग स्तर पर परखा जाना चाहिए . सीधे शब्दों में कहें तो लोग (इंसान ) ही सम्मान के हक़दार हैं तथा परम या सर्वोच्च (supreme) कहलाने के लायक हैं न कि विचार और धर्म जो बदलते रहते हैं और हानिकारक भी हो सकते हैं . संक्षेप में, इंसान ही पवित्र हैं - कोई धर्म उनकी बराबरी नहीं कर सकता . यह मूल अंतर बहुत से लोगों और विशेष रूप से धर्मों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता . इसके विपरीत धर्म को एक ऊंचे पायदान पर चढ़ा दिया जाता है और इंसान से अधिक पवित्र बना दिया जाता है . कोई भी धर्म या धार्मिक विचार आलोचना से परे नहीं हो सकता . उसकी आलोचना और विरोध का अधिकार एक मौलिक अधिकार होना चाहिए .

कोई भी धर्म कुछ खास उद्देश्यों, तथाकथित सच्चाइयों और दावों पर निर्भर होता है . ये दावे प्रायः न केवल झूठे होते हैं , बल्कि इनके आधार पर बनाये गए नियम कभी-कभी खतरनाक भी होते हैं. ये ऐसे दावे होते हैं जिनका कोई सबूत नहीं होता और जो अक्सर वैज्ञानिक समझ और मानव प्रगति के खिलाफ होते हैं . जिस चीज़ को हम धर्म कहते हैं - उसने मानव-संस्कृति का अपहरण कर लिया है, छानबीन और आलोचना से जबरदस्ती छूट मांगकर अपने लिए एक विशेष स्थान बना लिया है . इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विभिन्न धर्मों ने लोगों को इस हद तक संक्रमित (infect) कर दिया है ताकि यह बीमारी हमेशा चलती रहे . इन धर्मों के कुछ मतावलम्बी तो इतने कट्टर हो जाते हैं कि वे सभी आलोचनाओं को - चाहे वे धर्म के बारे में हों या कुछ ख़ास मान्यताओं के बारे में - अपने ऊपर या अपने समाज पर व्यक्तिगत एवं सामूहिक हमला मानते हैं तथा आलोचना करने वालों को प्राणदंड तक सुना देते हैं . ईशनिंदा क़ानून (blasphemy laws ) तो बहुत से देशों के आधुनिक कानून का भी हिस्सा हैं . अवैज्ञानिक और बेसिर-पैर के विचारों को भी ज़बरदस्ती मनवाया जाता है .

धर्म को समाज में आलोचना और विरोध से परे एक विशिष्ट दर्ज़ा दिया जाना मानववादी समाज के विवेकशील एवं वैज्ञानिक विकास में एक बड़ी बाधा है . धर्म के आज अनेक तर्कशील एवं विज्ञानसम्मत विकल्प उपलब्ध हैं. अतः धर्मों के स्थान पर तर्कशील , आधुनिक , विज्ञान-सम्मत एवं मानवतावादी विकल्पों की प्रतिस्थापना करके, प्रकृति एवं वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए मानव समाज एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकता है .